Thursday, October 2, 2008

व्यष्टि से समष्टि की वीथी कहाँ आरम्भ होती और कहाँ अंत, शायद कोई नहीं समझ पाया...हम न जाने किस मरीचिका में भटकते रहे, सोचते रहे कि आदर्शों की नींव पर खड़ा हमारे स्वप्नों का संसार कभी तो यथार्थ में रूपांतरित होगा, कभी तो मानवजाति अपने सत्व प्राप्त कर सकेगी...उस सत्व को जो मृत्युंजय है, कालजयी है।

वह सत्व जो स्वतः दृष्टिगोचर न सही, परन्तु प्रत्येक अणु में विद्यमान है॥

इस विश्वास को पुनर्जीवित कर दो...अगर इस मरीचिका के पार एक चिरंतन सत्य की निर्झरनी है तो इतनी शक्ति दो कि इस वीथी के कंटकों को पार कर अपने गंतव्य तक पहुँच सकें...

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